Tribals Become Owners of 90,000 Acres in Jungle

Bharat Mahan

९० हजार एकड़ जंगल पर आदिवासियो को मिला मालिकाना

सिमडेगा जिले के ठेथैतान्गेर ब्लॉक के कोंन्मिन्जरा पंचायत के कोंन्मिन्जरा गाँव के ग्राम प्रधान सेबेस्टियन टेटे गाँव वालों के साथ मिलकर गाँव के जंगल की सीमांकन में लगे हैं. लगभग २०० एकड़ के पुरखों की जंगल पर अब ३२ परिवारों का कानूनी हक है. वर्षो से वन विभाग इन्हें जंगल की जमीन पर अतिक्रमणकारी घोषित किये हुए था और जब- तब ग्रामीणों को जेल की हवा खानी पड़ती थी. सेबेस्टियन कहते हैं, वनाधिकार कानून के तहत अब इस जंगल के कानूनी मालिक गाँव वाले हैं और अब तो उनके नाम से जमीन का पट्टा भी है. पंजी टू में वन विभाग की जगह ग्रामीणों का नाम दर्ज है.

मारवाड़ी कॉलेज से कॉमर्स ग्रेजुएट सेबेस्टियन इसे मौन क्रान्ति की संज्ञा देते हैं. वह कहते हैं पुश्तैनी जमीन और जंगल पर परंपरागत अधिकार के लिए ही झारखण्ड में कोल विद्रोह, संथाल विद्रोह और मुंडा विद्रोह हुए लेकिन सफलता नहीं मिली लेकिन २००६ के इस वनाधिकार कानून के अनुपालन में सरकार ने रूचि दिखाई और परिणाम सामने है. इस कानून के मुताबिक ३१ दिसम्बर २००५ से पहले जंगल की जमीन पर खेती- बाड़ी कर रहे या रह रहे आदिवासियों या गैर आदिवासियों (कम से कम तीन पीढ़ी )  को उक्त जमीन पर व्यक्तिगत और सामुदायिक पट्टा दिए जाने का प्रावधान है.

जल, जंगल और जमीन के सवाल पर काम कर रहे २२ संस्थाओं के साझा कार्यक्रम झारखण्ड वनाधिकार मंच ने झारखण्ड सरकार के कल्याण विभाग के साथ एक राज्यव्यापी अभियान चलाया और ग्राम सभाओं को इस कानून के प्रावधानों और इसके तहत मिले अधिकारों के प्रति जागृत किया. दो सालों के निरंतर प्रयास का परिणाम रहा कि आज राज्य के ४३,५७२ आदिवासी एवं ११३० अन्य परम्परागत समुदायों को व्यक्तिगत पट्टा दिए गए. वनाधिकार कानून के तहत १३८३ आदिवासी गाँव एवं ६४ अन्य परम्परागत समुदायों के गाँव को सामुदायिक पट्टा दिए गए हैं. इस अभियान में ९१,६१२ एकड़ जंगल पर ग्रामीणों को मालिकाना हक मिला.

नया सवेरा विकास केंद्र के सचिव बिरेंदर कुमार बताते हैं कि पलामू के विश्रामपुर में १७ गांवों को सामुदायिक पट्टा दिए गए हैं. इन गांवों में ग्रामीण स्वंय केंदु पत्ता तोड़ रहें हैं. जंगल की जमीन पर फलदार पेड़ लगाए जा रहें हैं. आदिम जनजातीय समुदाय परहिया के ३२ परिवारों को डेढ़- डेढ़ एकड के जमीन के पट्टे दिए गएँ है. यहाँ ग्रामीण कुरथी, तिल तथा धान की खेती  कर रहें हैं. महुआ और जड़ीबूटी चुन रहें हैं.

२००६ के इस वनाधिकार कानून की प्रस्तावना में जंगलों पर आश्रित समुदायों खासकर आदिवासियों के साथ हुए ऐतिहासिक अन्याय को खत्म करने की बात की गयी है.ऐतिहासिक तथ्यों के मुताबिक जिन जंगलों पर आदिवासियों का एक छत्र राज था, उनका दोहन करने के इरादे से अंग्रेगी सरकार ने सन १८६४ में वन विभाग की स्थापना की और १८६५ में वन अधिनियम बनाकर उसे लागू कर दिया. सन १८७३ में वन अधिनियम में संशोधन करते हुए अंगेजों ने जंगल एवं उसके संसाधनों पर अपनी पकड़ पहले से अधिक मजबूत कर ली. इस अधिनियम के अनुसार जंगले में रहने वालों को अपने दावे के पक्ष में प्रमाण पेश करना था,लेकिन ऐसा न करने पर जंगल की जमीन का उनके द्वारा अतिक्रमण मन जायेगा. इस वन अधिनियम के कारण जंगल में रहने वाले आदिवासियों के अधिकार  खत्म हो गए.

झारखण्ड वनाधिकार मंच के समन्वयक फादर जॉर्ज मोनोपल्ली कहते हैं, झारखण्ड में सामुदायिक पट्टा के तहत लघु वनोपज़ यथा बांस, बीड़ी पत्ता आदि पर अधिकार नहीं दिए गए हैं. कानून के तहत जंगल की जमीन की उत्पादकता बढानें के लिए ग्रामीण विकास, पंचायती राज तथा विभिन्न कल्याणकारी स्कीमों को पट्टेदारों से जोड़ने की व्यवस्था की गयी है लेकिन झारखण्ड में इस पर काम नहीं हो रहा है. उन्होंने कहा कि महाराष्ट्र के गढ़चिरौली के १०० से ज्यादा गांवों में वनाधिकार कानून कानून के तहत बांस और बीडी पत्ता के उपयोग एवं विपणन का अधिकार ग्राम सभा के पास है. इन गांवों की ग्राम सभाओं को हर साल बांस के विपणन से २०-२२ लाख रूपए प्राप्त हो रहे हैं.

उन्होंने कहा कि अंग्रेजों ने वन सम्बन्धी जो भी कानून बनाये उस पर उपरी तर्क तो आदिवासियों की भलाई था लेकिन असली मकसद जंगलों पर एकाधिकार कायम करना था. झारखण्ड के आदिवासियों और दलितों के लिए यह कानून बेहद महत्वपूर्ण है और इसके बेहतर इस्तेमाल से जंगल में रहने वाले समुदायों की आर्थिक स्तिथि में गुणात्मक सुधार हो सकता है.

News Source
Sudhir Pal, Sr. Journalist

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