आदिवासी समाज में बेहतर है शिशु लिंगानुपात
‘बधाई हो लड़की हुई है!’
अमिताभ बच्चन के टी वी शो ‘कौन बनेगा करोड़पति’ का यह टीज़र- ‘बधाई हो लड़की हुई है!’ झारखण्ड समेत देश के पांचवी एवं छट्टी अनुसूची वाले इलाकों में यह केवल नारा भर नहीं है. इन इलाकों में शिशु लिंगानुपात राष्ट्रीय एवं राज्ये की औसत से बेहतर है. आदिवासी समाज में पुरुष एवं स्त्री में भेदभाव सामान्य की तुलना में कम है और सामाजिक- आर्थिक मामलों में महिलाओं की भागीदारी बेहतर है. २०११ की जनगणना रिपोर्ट भी यही प्रमाणित करती है.
जनगणना रिपोर्ट के मुताबिक २००१ में झारखण्ड का शिशु लिंगानुपात ९६६ था जो २०११ में घटकर ९४३ हो गया. झारखण्ड के अनुसूचित क्षेत्र के कई जिलों में शिशु लिंगानुपात राष्ट्रीय एवं राज्ये की औसत से बेहतर है. शिशु लिंगानुपात का मतलब जन्म के समय प्रति १००० लड़कों पर लड़कियों की संख्या से है. झारखण्ड में शिशु लिंगानुपात में २००१ की तुलना में २०११ में प्रति १००० लड़कों पर २३ लडकियां कम हुईं हैं. अभी राज्य का शिशु लिंगानुपात ९४३ है. लेकिन इसी अवधि में पश्चिम सिंघ्भुम में शिशु लिंगानुपात बढ़कर ९८०, पाकुड़ में ९६५, लोहरदगा में ९६१ हो गया. बांकी अनुसूची जिलों की बात करें तो सिमडेगा में यह अनुपात ९७५, गुमला में ९५५, खूंटी में ९५१, दुमका में ९५७, लातेहार में ९६४, तथा साहिबगंज में ९५५ है.
२०११ की जनगणना रिपोर्ट को देखें तो पता चलता है कि झारखण्ड के अनुसूचित क्षेत्र के जिलों की तरह ही शिशु लिंगानुपात के मामले में देश के सर्वोत्तम जिलों में हिमाचल प्रदेश के लाहुल एवं स्पीती(१०१३), अरुणाचल प्रदेश के तवांग (१००४), छत्तीसगढ़ के दंतेवाडा (१००४), बस्तर (९९०) एवं असम के कामरूप (९९३) जिले शामिल है.
सामाजिक कार्यकर्ता जेरोम जेराल्ड कुजूर कहते हैं- हमारे यहाँ लड़की पैदा होती है तो ख़ुशी मनता है. लड़की बोझ है ऐसा कोई माहौल नहीं है. आदिवासी समाज में पुरुष- महिला साथ मिलकर काम करतें हैं. झारखण्ड के लगभग सभी आदिवासी समुदायों में शादी में लड़के वालों की ओर से लड़की पक्ष को दहेज देने का रिवाज है. लड़की वाले दाम बोलते हैं और लड़के वालों को दाम देना पड़ता है. लेकिन दाम एक रूपए से ज्यादा नहीं हो पाती है. मसलन यदि लड़की वाले १० हज़ार रूपए का दाम रखते हैं तो असल में केवल १० पैसे ही लड़के वाले को देने होते हैं. खड़िया समुदाय में शादी में लड़के की ओर से एक जोड़ा बैल देने का रिवाज़ है.
सांस्कृतिक तौर पर आदिवासी महिलाओं की भागीदारी हर मौके पर है. यहाँ महिलाएं सामजिक- आर्थिक मामलों के केंद्र विन्दु में हैं. आदिवासी इलाके आज भी सबसे ज्यादा पिछड़े हैं और कथित विकास की किरण यहाँ नहीं पहुँच पायी है. आदिवासियों में बच्चे के जन्म को सिंगबोंगा की मर्जी से जोड़कर देखा जाता है, और इसमें कोई भी हस्तक्षेप सिंगबोंगा को नाराज करने जैसा है. झारखण्ड के विकसित जिलों यथा धनबाद (९१७), बोकारो(९१२), पूर्वी सिंग्बुम(९२२), हजारीबाग(९२४), रामगढ़(९२६), रांची(९३७) में शिशु लिंगानुपात राज्ये के औसत से काफी कम है. इन इलाकों की आर्थिक स्तिथि बेहतर है तथा यहाँ अल्ट्रा क्लिनिक की संख्या काफी है. स्टडी बताते हैं कि जहाँ अल्ट्रा साउंड क्लिनिक की संख्या ज्यादा है वहां शिशु लिंगानुपात बेहतर नहीं है.
प्लान इंडिया के स्टेट प्रोग्राम कोऑर्डिनेटर और पीसीपीएनडीटी के अनुपालन के लिए बनी स्टेट मोनिटरिंग कमिटी के सदस्य अरशद हुसैन कहते हैं -आदिवासी समाज में महिलाएं महत्वपूर्ण श्रम शक्ति है. आजीविका और घर की अर्थव्यवस्था में ८० फीसदी से ज्यादा की हिस्सेदारी महिलाओं की है. इस वजह से यहाँ महिलाओं के प्रति भेदभाव ज्यादा देखने को नहीं मिलता है. वह कहते हैं इन इलाकों में तकनीक की पहुंच बेहतर नहीं है. आदिवासियों की आर्थिक स्तिथि बेहतर नहीं है,इस वजह से उनका ध्यान खान-पान, हेल्थ, शिक्षा पर है न की फ़ालतू चीजों पर. उन्होंने कहा कि बांकी दुनिया को महिला- पुरुष में समानता की सीख आदिवासियों से मिलती है.