झारक्राफ्ट के पूर्व मैनेजिंग डायरेक्टर धीरेन्द्र कुमार की पहल से रेशमी बनीं हजारों ग्रामीण जिंदगियां
रांची: वह बताते हैं, मुझे लगा एक क्लीन स्लेट हाथ लगी है और नई कहानी लिखी जा सकती है। तब पता नहीं था कि यह कहानी दो लाख लोगों की जिंदगी बदलने की होगी। यह कहानी रेशम के कीट से तसर सिल्क वस्त्रों में झारखंड को विश्व में एक नई पहचान दिलाने की होगी। यह कहानी झारखंड के कारीगरों के कौशल के लोहा मनवाने की होगी। झारक्राफ्ट के पूर्व मैनेजिंग डायरेक्टर 1983 बैच के आई एफ एस अधिकारी धीरेन्द्र कुमार उन दिनों को याद करते हुए कहते हैं, तत्कालीन मुख्यमंत्री जी की ओर से 2006 में जब सेरीकल्चर डायरेक्टर के पद पर मुझे भेजा गया तो लगा कहाँ फंस गएँ हैं। उस रात ढाई बजे तक सेरीकल्चर, हेंडीक्राफ्ट, हैंडलूम और खादी की संचिकायें देखने के बाद स्पस्ट हो गया कि 15 सालों में कुछ हुआ ही नहीं है। हाँ, एक अच्छी बात रही कि इस डिपार्टमेंट के टेक्निकल लोग फील्ड में हैं। तसर सिल्क को लेकर एक रोड मैप बनाना शुरू किया और एक सप्ताह में सारे सेंटर घूमने और गाँव वालों से मिलने के बाद समझ आया कि पांच सालों में तसर का प्रोडक्शन 10 गुना बढ़ सकता है। रोडमैप की खास बात रही की इसमें कूकून उत्पादन, धागा बनाने, धागा से कपड़ा, कपड़े की रंगाई और छपाई के बाद इसके मार्केटिंग की व्यवस्था को एक वैल्यू चैन में देखा गया। 2006-07 में झारखंड में तसर का प्रोडक्शन 90 मीट्रिक टन था और पांच सालों में 900 मीट्रिक टन करने की योजना बनी। राज्य सरकार ने इस योजना को मंजूरी दे दी। धीरेन्द्र कुमार कहते हैं कि इस प्रस्ताव को केंद्रीय रेशम बोर्ड, बंगलौर को भेजा गया तो बोर्ड को यह अविश्वसनीय लगा। बोर्ड ने साफ कहा कि यह प्रस्ताव अचीव करने योग्य नहीं है। धीरेन्द्र कुमार की सबसे बड़ी पहल रही सरकारी व्यवस्था में निजी कंपनियों जैसी वर्क कल्चर को बनाने की नीतिगत बदलाव करते हुए विभाग और अधिकारियों को कार्यक्रम को लागू के परम्परागत तौर-तरीकों की जगह उन्हें सहजकर्ता की भूमिका में रखा गया। योजना में ग्रामीणों को हर स्तर पर जगह दी गयी। परम्परागत तौर-तरीकों से रेशम की खेती कर रहे ग्रामीणों को योजना को लागू करने की जिम्मेदारी दी गयी। ग्रामीणों में उत्साह था और हमलोगों ने उन्हें तकनीकी तौर पर संवृद्ध कर दिया। वह कहते हैं इस प्रोजेक्ट को विभाग के अधिकारियों से लेकर वैज्ञानिकों ने नकार दिया। सबको लगा यह असंभव है। लेकिन पहले साल के प्रोडक्शन के बाद लोगों का साथ मिलना शुरू हो गया। पहले साल 145 और दूसरे साल 296 मीट्रिक टन का प्रोडक्शन हुआ। प्रोडक्शन के इस आंकड़े को देखकर सेंट्रल सिल्क बोर्ड अलर्ट हुआ और बोर्ड के एक सीनियर साइंटिस्ट 10 दिनों के विजिट पर झारखंड आये और ग्रामीणों के काम को देखकर टिप्पणी की, ऐसा लगा जैसे सपना देख रहें हैं। सेंट्रल सिल्क बोर्ड ने झारखंड के रेशम दूत मॉडल को बेस्ट बताया और अन्य राज्यों को इसे अपनाने की सलाह दी। रेशम दूत मॉडल में 25-25 के ग्रुप में ग्रामीणों को तथा उन्हें रेशम के कार्य में जोड़ा गया। रेशम दूत मॉडल का असर रहा कि तीसरे साल प्रोडक्शन 700 मीट्रिक टन और 2012-13 आते-आते यह आंकड़ा 1025 मीट्रिक टन तक पहुँच गया। धीरेन्द्र कुमार कहते हैं इस योजना में राज्य के दो लाख किसानों ने कोकून प्रोडक्शन में अपनी भूमिका अदा की। 45-50 दिनों के इस काम में किसानों की औसत कमाई 40 हजार पहुंच गयी। इनोवेशन करने वाले किसानों की कमी एक लाख तक रिकॉर्ड की गयी। गरीबी रेखा के नीचे रहने वाले हजारों परिवार सामाजिक विकास के संकेतक में आगे बढ़ गए।